लोगों की राय

लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

150 पाठक हैं

औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

असम्भव तेज और दृढ़ता


जो औरतें कभी सिर झुकाये, जुबान पर ताला जड़े ज़िन्दगी गुजारती थीं, वही औरतें, सिंगुर की महिलाएँ, आज पुलिस की मार खा रही हैं। जिन औरतों ने कभी घर से बाहर कदम नहीं रखा कलकत्ता शहर की रोशनी नहीं देखी, वही आज अनशन कर रही हैं। मर्द भी अनशन पर बैठे हैं। सिंगुर से लौटकर मेरी एक मित्र ने बताया, 'अनशन करनेवालों में पुरुष तो सरकार का विरोध करने के परिणाम के बारे में सोच-सोचकर डर और फ़िक्र से नीले पड़ गये हैं। मगर अनशन पर बैठने वाली औरतों में असम्भव तेज और दृढ़ता है। औरतों का कहना है कि अगर मरना है तो मर जायेंगी।' इतनी दृढ़ता! इतना तेज! औरतों को इतना मनोबल कहाँ से मिला? बीस से ले कर सत्तर तक की सभी औरतों का मनोबल, इतना ही जोरदार! कोई भी औरत समझौता करने को तैयार नहीं! पीछे हटने को राजी नहीं! यह देख कर अच्छा लगता है। मुझे याद आती है, पश्चिमी देशों में वोट के आन्दोलन के लिए औरतें रास्ते पर उतरी थीं। राह-राह पुलिसिया अत्याचार की शिकार हुई थी, लेकिन बिल्कुल भी नहीं डरीं। मुझे याद आती है, स्वाधीनता आन्दोलन में देश-देश में औरतों की भूमिका। पुरुष समझौता कर रहे हैं लेकिन औरतें समझौता नहीं करतीं। यह जो हमें की समझौताहीन, संकल्प, सिद्धान्त में असंकुचित चरित्र की खबरें मिलती रहती हैं. ये चरित्र आखिर कहाँ चले जाते हैं? औरत जैसे ही चारदीवारी के अन्दर घसती हैं, वैसे ही उनकी गर्दन दबोच ली जाती है। उनका टेंट्आ दबा दिया जाता है। पाँवों में जंजीरें पहना दी जाती हैं। असम्भव तेज़ और दृढ़ता समेत वे लोग घर-घर सड़ती रहती हैं। देश में अराजकता की सृष्टि होने पर ही उन लोगों पर नज़र पड़ती है। जुलूसों में सबसे आगे औरतें! यूँघट उघाड़ कर, बुर्का हटाकर, बाहर निकली हुई औरतें। औरतों को घर-घर कैद कौन कर रहा है? औरतों में ऐसी किस बात की कमी है कि वे लोग यह मज़बूत दीवार तोड़ नहीं पा रही हैं? अगर किसी ने उन लोगों का हथियार छीन लिया है तो औरतें भी पलट कर उन लोगों का हथियार क्यों नहीं छीन लेतीं? क्या वे लोग दीवार तोड़ने के लिए कोई और हथौड़ी क्यों नहीं जुटा लेतीं? औरतों की इतनी ईमानदारी, साहस और अडिग मन आखिर कहाँ खो जाते हैं? उन लोगों की हत्या कौन करता है? इस सवाल का जवाब भी हम जानते हैं। जानकर भी ज़्यादातर जुबान बन्द किये रहते हैं और अनजान बनने का बहाना करते हैं।

मेरे मन में सवाल उठती है कि सिंगुर में छीनी गयी ज़मीनों में क्या सच ही कोई ज़मीन औरतों की थी? या औरतों के पिता, पति या भाइयों की थी? औरत के अधिकार में कुछ नहीं है, औरतों के मंगल के लिए कुछ नहीं है, लेकिन औरत की मदद से ही ज़र-जायदाद की रक्षा की जाती है। औरतें ही रक्षा करती हैं। वैसे मैंने कभी-कभी यह भी देखा है कि औरतें ही किसी दुःसमय, दुःसह, दुर्दिन की भी परवाह नहीं करतीं। जोखिम उठाने की क्षमता, समूची पृथ्वी पर, औरतों में ही अधिक है। औरतों ने यह बात बहुत बार प्रमाणित की है। उन लोगों ने जोखिम उठा कर असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया है। इसके बावजूद पुरुषतन्त्र घर या बाहर, औरतों की दृढ़ता और मज़बूती की हत्या करता रहता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book